कर्बला में जब पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद (स) के नाती इमाम हुसैन को उनके साथियों और परिवार के साथ यज़ीदी लश्कर ने भूखा प्यासा १० मुहर्रम आशूरा के दि...
कर्बला में जब पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद (स) के नाती इमाम हुसैन को उनके साथियों और परिवार के साथ यज़ीदी लश्कर ने भूखा प्यासा १० मुहर्रम आशूरा के दिन शहीद कर दिया तो इस ज़ुल्म की कहानी पूरी दुनिया में फैली जो इतनी दर्दनाक थी की पूरी दुनिया की हर क़ौम दुःख प्रकट करने लगी | अज़ादारी बाद ऐ कर्बला फ़ौरन इमाम हुसैन (अ ) के बेटे इमाम ज़ैनुलआबेदीन और उनकी बहन जनाब ऐ ज़ैनब के गिरया और बैन करने के साथ शुरू हो गयी थी | फिर तो जिसने इस ज़ज़ीदी ज़ुल्म के बारे में सुना अज़ादारी करने लगा |
अकबर के काल में, मुनीम खान खान-ए-ख़ान, जौनपुर के गवर्नर बने (1567- 76), उन्होंने कटघरा में एक मस्जिद और खानकाह ज़िकरान की स्थापना की | इमामबाड़ा तो नहीं रहा लेकिन आज उसी स्थान पे कटघरा की कर्बला मौजूद है और एक मुईन खानखाना के दौर की क़नाती मस्जिद के निशानात मौजूद हैं |
अक्सर लोग आज के दौर की अज़ादारी का अंदाज़ देख के यह सोंच लेते हैं की अज़ादारी का मतलब जुलुस ऐ अज़ा है या अलम ताज़िया रखना है | आज़ादारी से मुराद कर्बला के शहीदों अहलेबैत और उनके असहाब पे हुए ज़ुल्म को याद करके आंसू बहाना और उनको याद करना है | अब यह अलग अलग मुल्कों के अपने अपने तरीके से इसे अंजाम देते हैं | हदीसों में इमाम ऐ मूसा ऐ काज़िम (अ ) के बारे में कहा गया है की मुहर्रम का चाँद होते ही मौला को कोई हँसता नही देख सकता था बस अश्क़ बहते रहते थे और आशूरा के रोज़ तो पूरा दिन लोगों को उनकी गिरया करने की आवाज़ें सुनाई देती थी | मुहर्रम का चाँद होते ही रौज़ा ऐ इमाम हुसैन कर्बला जाने का हुक्म है और जो लोग न जा सकते हों उनके लिए इमाम ऐ मुहम्मद बाक़िर (अ ) का हुक्म है की लोगों को जामा करो और मिल के इमाम हुसैन पे गिरया करो और एक दूसरे से मिल के घरों में जा के पुरसा दो | इमाम ऐ रज़ा (अ ) फरमाते हैं की जो कोई ऐसी मजलिस में बैठेगा जहां ज़िक्र ऐ अहलेबैत हो रहा हो उसका दिल रोज़ ऐ क़यामत तक ज़िंदा रहेगा |
इस तरह अज़ादारी ऐ हुसैन बाद ऐ कर्बला इमाम (अ ) के अज़ादारी के तरीके से चलती रही और मक़सद यही रहा की अहलेबैत की मुहब्बत दिलों में क़ायम रखना और मक़सद ऐ कर्बला को अज़ादारी का मक़सद बनाते हुए उसे ज़िंदा रखना | लोग माह ऐ मुहर्रम में कर्बला जाते थे और जो न जा पाते वो घरों में मजलिस करते और आंसू बहाते | धीरे धीरे लोगों ने अपने इस अज़ादारी के मक़सद को दुनिया तक पहुँचाना शुरू किया और तब हुसैन की याद में उनपे हुए ज़ुल्म को सूना के आंसू बहाने के लिए एक ऐसी जगह की ज़रूरत पडी जहां सारे धर्म के लोग आ सकें और इसी के साथ शुरू हुयी इमामबाड़ों को बनवाने की शुरुआत | पहले यह अज़ादारी मर्सिया की शक्ल में हुआ करती थी और शोक सभाओं (मजलिसों ) में मर्सिया पढ़ा जाता था जो बाद में लगभग डेढ़ सौ साल पहले हदीस की शक्ल में बदल गया | भारत से जो लोग कर्बला मुहर्रम में नहीं जा पाते थे उन्होंने कर्बला के प्रतीक चिन्ह बनाने शुरू कर दिए | जैसे ताज़िया ,अलम ,तुर्बत इत्यादि और उन्हें इमामबाड़ों में सजाना शुरू किया जिस से इन प्रतीक चिन्हों को देख के कर्बला के शहीदों को याद किया जा सके | यह प्रतीक चिन्ह बनाने का दस्तूर काफी बाद में हुआ और आज जुलूस की शक्ल हर साल मुहर्रम में अज़ादारी के जुलुस की शक्ल में देखा जा सकता है जिसमे इन प्रतीक चिन्हों के साथ साथ अज़ादार नौहा मातम करते हुए कर्बला में हुसैंन पे हुए ज़ुल्म को याद करते आंसू बहाते एक इमामबाड़े से दूसरे इमामबाड़े तक चला करते हैं |
हुसैन के चाहने वाले पूरी दुनिया में जहां जाते ग़म ऐ हुसैन और अज़ादारी भी उनके साथ रहती | जौनपुर में अज़ादारी का इतिहास बड़ा पुराना है और आज भी तुग़लक़ शर्क़ी और मुग़ल दौर के इमामबाड़े यहां मौजूद है | यह अज़ादारी जौनपुर में मर्सिये की शक्ल में शुरू हुयी और फिर चौक पे ताज़िया रखने से ले के नवाबों का दौर आते आते जुलूस की शक्ल अख्तियार कर गयी और आज पूरी दुनिया में यह जुलूस ऐ अज़ादारी का रिवाज है जिसका मरकज़ इमामबाडे और इमाम हुसैन के रौज़े हुआ करते हैं |
फ़िरोज़ शाह तुग़लक़ (1351-1388) काल में आज से ६५४ साल पहले हज़रत मौलाना मखदूम सैयद अली नसीर, जो कि मोहल्ला नसीर खान उर्फ छत्री घाट के निवासी हैं, ने 1371 ई में छत्री घाट में एक अजाखाना का निर्माण किया था जो अब भी मौजूद है लेकिन अब पुराने इमामबाड़े की बस नीव ही दखाई देती है और उसी जगह नया इमामबाड़ा बन चूका है । यह जौनपुर का पहला अजाखाना है ।.
फ़िरोज़ शाह तुग़लक़ (1351-1388) काल में ही दूसरे ऐतिहासिक अजाखाना का निर्माण मौलाना नासिर अली के वंशजों में से एक फातिमा बीबी ए बहवा बेगम ने किया था। निर्माण के लिए जमीन शहजादा नसीरुद्दीन महमूद तुगलक ने दी थी। यह इमामबाड़ा अब भी पुरानी हालात में बाजार भुआ के दालान इलाक़े में मौजूद है और अब इमामबाड़ा मीर बहादुर अली के नाम से जाना जाता है और बेहतरीन तरीके से वहाँ अज़ादारी होती है | नौचंदी के अलम और अमारी के लिए बहुत मशहूर है |
फ़िरोज़ शाह तुग़लक़ के दौर में यह इमामबाड़े बता रहे हैं की इनमे अज़ादारी मर्सिये की शक्ल होती रही होगी |
शर्क़ी काल में अज़ादारी |
तुग़लक़ काल के बाद आया शर्क़ी बादशाहों का एक लम्बा दौर | शर्की काल के दौरान, आज़ादरी की परंपरा ने अच्छी तरह से स्थापित किया और जौनपुर में सम्मान प्राप्त किया। उन्होंने (शर्की सुल्तानों) ने व्यक्तिगत ध्यान दिया और 'मजलिस-ए-अज़ा' को अपने महलों में आयोजित करना अपने धार्मिक कर्तव्य के रूप में लिया। हालांकि ख्वाजा जहान, 'मलिकुश-शरक' ने अजाखाना का निर्माण नहीं किया, लेकिन हमेशा राजसी खजाने से, व्यक्तिगत रूप से मजलिस-ए-अजा में भाग लिया और सभाओं के लिए योगदान दिया। इब्राहिम शाह शर्की (1400-1440 AD शर्की वंश के सबसे सफल शासक थे, जिन्होंने एक शानदार अजाखाना बनवाया था, जिसे उनके काल में खानकाह-नुहागरन के नाम से जाना जाता था। जो की बड़ी मस्जिद में है और ताज़िया को इब्राहिम शाह शर्की की अंतिम इच्छा के अनुसार उसकी कब्र पर रखा जाता है। खानकाह-नुहागरन लगभग ८ फ़ीट ऊंचे चबूतरे पे बनी है और उसी से लगा हुआ एक इमामबाड़ा भी बनवाया जो आज भी मौजूद है जहाँ से आज भी शाही तुर्बत ८ और ९ मुहर्रम को उठती है और दस को दफन की जाती है | इसी ख़ानक़ाह नुहागरन से सटी एक मस्जिद बनवायी जिसे आज बड़ी मस्जिद के नाम से जाना जाता है जिसका असल नाम जामे उस शर्क़ है |
उनके बेटे सैयद महमूद शाह शर्की (1440-1457 ए। डी।) ने मोहल्ला बेगम गंज में अजाखाना बनाया, जिसकी स्थापत्य कला के कारण शहर के अन्य अजाखानों में केंद्रीय स्थान था और यह आज सदर इमामबाड़ा के नाम से जाना जाता है और अपनी पुरानी शक्ल में नहीं है ।सिकंदर लोदी ने अपने आक्रमण के दौरान इसके कुछ हिस्से को ध्वस्त कर दिया था, अब उसी स्थान पर सदर इमामबाड़ा है|
सुल्तान महमूद शाह की प्रिय पत्नी, मलिका राजे बीबी ने भी बेगम गंज में एक सुंदर मस्जिद का निर्माण किया था; इसके समीप, एक अजाखाना और एक खानकाह बनवायी और मौलाना सैयद अली दाउद को इन इमारतों का एकमात्र प्रभारी बनाया गया था। आज मस्जिद तो मौजूद है जिसे लाल दरवाज़ा मस्जिद कहते हैं लेकिन अज़ाख़ाना और खनकाह मौजूद नहीं | मौलाना सय्यद अली दावूद का खानदान पानदरीबा में मौजूद है जिस घर को ज़ुल्क़दर मंज़िल के नाम से जाना जाता है |
शर्क़ी काल के बाद लोधी वंश के दौर में अज़ादारी पे बहुत सख्त गुज़रा और कोई इमामबाड़े या मस्जिद की तामीर नहीं हुयी बल्कि सिकंदर लोधी ने तुग़लक़ और शर्क़ी समय की मस्जिदें और इमामबाड़े तुड़वा दिए | लेकिन मुग़ल काल के आते आते फिर से एक बार अज़ादारी की रौनक बढ़ गयी |
मुग़ल काल के इमामबाड़े
मुनीम खान खान-ए-ख़ान हुमायूँ के साथ ईरान से आए थे। ईरान का बादशाह तहमासुप सफ़वी और हुमायूँ के मध्य यह तय हुआ था कि अगर हिन्दुस्तान में हुमायूँ की हुकुमत का़ क़ायम हो जाएगी तो वह वहाँ अज़ादारी को बढा़वा देगा जहाँगीर के दौर में क़दम रसूल, बाग हाशिम, हुसैनाबाद की तामीर हुई। क़दम रसूल हुसैनाबाद
के निकट पंजा शरीफ का निर्माण हुआ। पंजा शरीफ को ही शाह का पंजा भी कहते है। इसके आस-पास व चारों ओर फैली हुई ज़मीन पंजा शरीफ की ही मिल्कियत थीं। पंजा शरीफ की तामीर 1612 ई0 में हुई थीं। सदर
इमामबाड़ा के बाद पंजा शरीफ को मरकज़ी हैसियत हासिल है। अशर-ए-मोहर्रम की नौचंदी को जुलूस मजलिस नज्ऱ व नियाज़ का प्रबन्ध यहाँ किया जाता है। हज़रत अली की शहादत के मौके पर 20 रमज़ान को मोहल्ला अजमेरी स्थित मस्जिद शाह अता हुसैन एवं बलुवा घाट स्थित इमामबाड़ा शेख़ मद्दू से जुलूस निकलकर शहर के मुख्य मार्गों से होता हुआ पंजा शरीफ जाकर ख़त्म होता है | मुग़ल काल में हकीम कोहाल द्वारा शाही पुल के निकट नवाब बाग़ में मस्जिद बनवायी गई जिसे वर्तमान मंे शिया जामा मस्जिद नाम से जाना जाता है जिसमें आज भी नमाज़े जुमा अदा की जाती है
मुग़लकाल में जौनपुर में शाहाने अवध के जे़रे इलाक़ों में मीर अख़वन्द के ख़ानदान की रिसायत थी और उसके आस-पास स्थित गांव, कस्बात इसी ख़ानदान के इलाके़ मंे थे जिसकी वजह से कई मस्जिदंे व इमामबाडें़
तामीर हुए। राजा इरादत जहाँ इसी खानदान के आखिरी राजा थे, राजा इरादत जहाँ के परपौत्र मुज़फ़्फ़र जहाँ व डाॅ0 राग़िब हुसैन जै़दी इत्यादि लखनऊ में रहते है।
के निकट पंजा शरीफ का निर्माण हुआ। पंजा शरीफ को ही शाह का पंजा भी कहते है। इसके आस-पास व चारों ओर फैली हुई ज़मीन पंजा शरीफ की ही मिल्कियत थीं। पंजा शरीफ की तामीर 1612 ई0 में हुई थीं। सदर
इमामबाड़ा के बाद पंजा शरीफ को मरकज़ी हैसियत हासिल है। अशर-ए-मोहर्रम की नौचंदी को जुलूस मजलिस नज्ऱ व नियाज़ का प्रबन्ध यहाँ किया जाता है। हज़रत अली की शहादत के मौके पर 20 रमज़ान को मोहल्ला अजमेरी स्थित मस्जिद शाह अता हुसैन एवं बलुवा घाट स्थित इमामबाड़ा शेख़ मद्दू से जुलूस निकलकर शहर के मुख्य मार्गों से होता हुआ पंजा शरीफ जाकर ख़त्म होता है | मुग़ल काल में हकीम कोहाल द्वारा शाही पुल के निकट नवाब बाग़ में मस्जिद बनवायी गई जिसे वर्तमान मंे शिया जामा मस्जिद नाम से जाना जाता है जिसमें आज भी नमाज़े जुमा अदा की जाती है
मुग़लकाल में जौनपुर में शाहाने अवध के जे़रे इलाक़ों में मीर अख़वन्द के ख़ानदान की रिसायत थी और उसके आस-पास स्थित गांव, कस्बात इसी ख़ानदान के इलाके़ मंे थे जिसकी वजह से कई मस्जिदंे व इमामबाडें़
तामीर हुए। राजा इरादत जहाँ इसी खानदान के आखिरी राजा थे, राजा इरादत जहाँ के परपौत्र मुज़फ़्फ़र जहाँ व डाॅ0 राग़िब हुसैन जै़दी इत्यादि लखनऊ में रहते है।
इमामपुर में रौज़ा तामीर हुआ शाह मुर्तज़ा ने हमजा़ पुर में रौज़ा बनवाया बड़ागांव, भादी, शाहगंज, कलाँपुर तिघरा, गोडिला, खन्वाई,लखमापुर, मवई और अन्य गांवों एवं क़स्बात में भी अज़ादारी ख़ूब फरोग पाई।
मुग़ल काल के आख़िरी दिनांे की निशानी के तौर पर कल्लू मरहूम का इमामबाड़ा है जिसकी तामीर सैयद जलालुद्दीन तिरमिजी़ ने कराई थी जो अब मरकजी़ इमामबाडा़ कल्लू के नाम से जाना जाता है जो मख़दूम शाह अढन मोहल्ले मंे स्थित हैं। जहाँ पर शिया मुसलमानों के बड़े-बड़े इज्तेमा मजलिसें, महफिल जुलूस व शब्बेदारियों का आयोजन किया जाता हैं। बाजा़ र भुवा स्थित इमामबाड़ा शेख मो0 इस्लाम जहाँ पर इस्लाम चैक भी है यहाँ इमाम हुसैन का ऐतिहासिक चेहल्लुम 18-19 सफ़र को मनाया जाता है
मुग़ल काल के आख़िरी दिनांे की निशानी के तौर पर कल्लू मरहूम का इमामबाड़ा है जिसकी तामीर सैयद जलालुद्दीन तिरमिजी़ ने कराई थी जो अब मरकजी़ इमामबाडा़ कल्लू के नाम से जाना जाता है जो मख़दूम शाह अढन मोहल्ले मंे स्थित हैं। जहाँ पर शिया मुसलमानों के बड़े-बड़े इज्तेमा मजलिसें, महफिल जुलूस व शब्बेदारियों का आयोजन किया जाता हैं। बाजा़ र भुवा स्थित इमामबाड़ा शेख मो0 इस्लाम जहाँ पर इस्लाम चैक भी है यहाँ इमाम हुसैन का ऐतिहासिक चेहल्लुम 18-19 सफ़र को मनाया जाता है
मानी और सोंगर में भी पुराने अजा़ खा़ने बने है जिसकी बहुत आराज़ियात वक़्फ़ बिकानी बीबी नक़ी फाटक जौनपुर के वक़्फ़ में दर्ज है।मछली शहर स्थित अज़ाखा़ ना-ए-मुराद अली हाकिम जौनपुर में सोने
की ज़रीह आज भी रखी है जो अवध के नवाब शुजाउद्दौला के इमामबाडे़ दरियाई रास्ते के द्वारा किश्ती से जौनपुर 1857 के ग़दर में लाई गई थी, जब इस ज़रीह के जौनपुर लाने का शोर उठा तब मुराद अली हाकिम जौनपुर
को इस बात का डर पैदा हुआ कि कहीं अंग्रज़ों को इसका पता न लग जाए इसलिए उन्होंने इसे पानी मंे डूबो दिया और जब ग़दर ख़त्म हुआ तब ईसे पानी से निकालकर अपने अज़ाख़ाने में रख दी जो आज भी मौजूद अहमद मुनज़्ज़ली ने मछली शहर मंे कर्बला का निर्माण करवाया।
जौनपुर शहर से सटे हुए कजगाँव सादाते मसौंडा में राजा बनारस के दीवाने निजा़ मत आरै सरदार मौलाना सैयद गुलशन अली ने इमामबाड़ा तामीर करवाया जिसमं असली ख़ाके-शिफा़ (वह मिटी जहाँ पर इमाम हुसैन शहीद किए गए, जिस पर उनका खून बहा) की जरीह आज भी मौजदू है जो अपने आप मंे एक बहुमूल्य धरोहर है।
ठीक इसी तरह की ज़रीह कोलकाता के नवाब मुर्शिदाबाद के इमामबाड़े में भी है। यहाँ पर अज़ादारी काफी बड़े पैंमाने पर की जाती है, चाँद रात से ही जुलूसों व मजलिसों का सिलसिला शुरू हो जाता है। यहाँ मुगल काल में निरही बीबी की बाग में बना क़दम रसूल, सदर इमामबाड़ा और सैयद पहाड़ मौजूद है जहाँ पर अज़ादारी होती है। इसके अलावा एक बहुत ख़ूबसूरत दरगाह हज़रत बाबुल हवाएज के नाम से सभी सम्प्रदाय के लोगों के आर्थिक योगदान से मिलकर बनी है जो अली अहमद साहब की गोल-कोठी के ठीक सामने स्थित है।
शहर में स्थित अन्य इमामबाडे |
(1) इमामबाडा़ मीरघर पान दरीबा
(2) इमामबाडा़ अकबर नजफ़ अशरफ़
(3)इमामबाड़ा शेख़ हशमत अली
(4) इमामबाड़ा जंगी शहीद, सदर इमामबाड़ा रोड
(5) इमामबाड़ा मीर हामिद अली
(6) इमामबाड़ा दरबारे हुसैनी मुल्ला टोला
(7) अज़ाख़ानाएं हाजी नरूमोहम्मद,पान-दरीबा
(8) इमामबाडा़ मीरू सैयद मोहल्ला मख़दूम शाह बड़े
(9 )इमामबाड़ा मौलाना मुफ़्ती शमीम आलम, हमाम दरवाजा़ में
(10 ) अज़ाख़ ान-ए-काज़िमी विला मोहल्ला अजमेरी
(11 ) इमामबाड़ा क़ाज़ी साहेबान, सिपाह
(12 ) इमामबाड़ा सहेन्ची (इमामिया स्कूूल)
(13 ) इमामबाड़ा वाजिबा बीबी
(14 ) इमामबाड़ा रेठीतल्ला
(15 ) इमामबाडा़ हाजी मो0 अली ख़ ाँ
(16 ) इमामबाडा़ बसवारी तल्ला
(17 ) इमामबाड़ा इमली तल्ला
(18 ) इमामबाड़ा ज़ामिन
(19 ) इमामबाड़ा बड़े इमाम, गूलरघाट
(20 ) इमामबाड़ा वक़्फ़ मोतीजान, नख़्ख़ ास
(35) इमामबाड़ा मिर्ज़ा हाशिम व मिर्ज़ा रियाएत अली, कटघरा
(36) इमामबाडा़ आले हसन मरहूम व एजाज़, हुसैन मरहमू , बडी़ मस्जिद
(37) इमामबाडा़ ताहिर हुसैन व मंेहदी, इमामबाड़ा अरजन बीबी और इमामबाड़ा वक़्फ़ शाह इनायत हुसैन, मोहल्ला मीर मस्त
(38) कंचन का इमामबाडा़ , नवाब यूसूफ रोड
(39) इमामबाडा़ वक़्फ़ शाह अबुल हसन, भण्डारी
(40) इमामबाड़ा यहियापुर
(41) इमामबारगाहे जवादिया, अहमद ख़ाँ की मण्डी
(42) बडे़ घर का इमामबाड़ा, इमामबाड़ा मीर मुस्तफ़ा एवं इमामबाड़ा मीर मासूम हुसैन, बारह दुवारिया
(43) इमामबाडा़ हाशिम हुसैन, इमामबाडा़ आबिद हुसैन,मोहल्ला शेख़ मोहामिद
44) इमाम चैक मुख़्तार हुसैन, अजमेरी हम्माम दरवाज़ा
(45) इमामबाड़ा फ़क़ीर हुसैन, इमाम चैक लाडले हसन, अबीर गढ़ टोला
(46) इमामबाड़ा फ़्ती हाउस
(47) इमामबाड़ा वास्ती हाउस
(48) इमामबाड़ा शाह साहब
(49) इमामबाडा़ हसन मंज़िल
(50) इमामबाडा़ कै़सर मंज़िल
(51) इमामबाड़ा शेख़ अब्दुल मजीद, चैक मुफ़्ती मोहल्ला
(52)इमामबाडा़ मौलाना शाह अली जवाद, मुफ्त़ ी मोहल्ला
(53) इमामबाडा़ आबिदी मंज़िल
(54) इमामबाड़ा रिज़वी विला,
(55) इमामबाड़ा शेख़ सलामत अली
56) इमामबाड़ा शेख़ नरू अली
(57) इमामबाडा़ शेख़ रमजान अली
(58) इमामबाडा़ नवाब हसन खाँ
(59) इमामबाडा़ अब्दुल ग़नी सलमानी
(60) इमामबाडा़ नासिरया दारूल अक़ामा
(61) इमामबाडा पकड़ तल्ला
(62) इमामबाडा़ दरियानी टोला
(63) इमामबाड़ा शाह अबुल हसन, मीर मस्त।
यह मैंने कुछ इमामबाड़ों का ही ज़िक्र किया है ऐसे अनगिनत इमामबाड़े हैं इस छोटे से शहर जौनपुर में जिको इंशाल्लाह मोमिनीन का साथ मिला तो शामिल करूँगा |
लेखक एस एम मासूम


